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कल्पेश याग्निक का कॉलम : 'देशद्रोही कौन है- सिर्फ अदालत तय करे...

देशद्रोही कौन है- सिर्फ अदालत तय करे, हमारे लिए तो कसाब-अफज़ल-याकूब एक से आतंकी; गोडसे-बेअंत-नलिनी एक से हत्यारे
‘देश के बिना, मैं इन्सान नहीं हूं।’ - नवाफ अल-नासिर अल-सब़ाह, परिचय पता नहीं

आपको यह हेडलाइन अजीब लग सकती है। किन्तु इन नामों में अफज़ल और गोडसे का उपयोग अचानक अलग तरह से किया जाना शुरू हुआ है। और ऐसा देशद्रोह पर किए जा रहे विषवमन के दौरान हो रहा है।

कतिपय बुद्धिजीवी देशद्रोह के विरुद्ध कानून को ही अब समाप्त करना चाह रहे हैं। और ख़तरनाक तरह से देशद्रोहियों का महिमामंडन करने पर उतर आए हैं। दूसरी ओर अतिवादी हिंसा फैलाने में जुट गए हैं। पत्रकारों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सदस्यों को प्रताड़ित कर, हमला कर रहे हैं। और ये वकील हैं। कानून हाथ में लेकर, हाथ चलाने वाले ये कौन-से वकील हैं?

देशवासी, इस धोखे को ध्यान से देख रहे हैं।
वे उन लोगों को देखकर हैरान हैं, जो देशद्रोहियों को समर्थन दे रहे हैं। और यहां स्पष्ट करना अनिवार्य होगा कि जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष की बात नहीं हो रही है। वो तो कोर्ट तय करेगा -कोर्ट को ही यह अधिकार है तय करने का कि कोई देशद्रोही है या नहीं।

यहां तो बात हो रही है एक दुर्दांत आतंकी की। किसी मोहम्मद अफ़जल नामक एक कलंक की -जिसे सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोही पाया था। जिसने हमारी संसद पर हमले की साजिश रची थी। दुश्मनों से मिलकर। अापराधिक षड्यंत्र। उसके पक्ष में नारे बुलंद करने से न तो उसका पाप कम हो जाएगा, न ही देश में कोई नई सहानुभूति लहर पैदा होगी। हां, भड़काने और उकसाने के आरोप जरूर लग जाएंगे। अब वे आरोप, कोर्ट में ठहर पाएं या ध्वस्त हो जाए -यह नितांत अलग विषय है।

कानून अपनी तरह से काम करता है। और न्याय अपनी तरह से।
देशद्रोही की कानूनी लड़ाई अपनी जगह है -और वह वकीलों की जिरह से चलेगी। न कि वकीलों की हिंसा से।

हिंसा, किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है। आज जो देशभर में आक्रोश है -वह क्यों है? किसी नागरिक को कोई लेना-देना नहीं है कि छात्रसंघ अध्यक्ष देशद्रोही है या कि कोई और। किसी की चिंता यह नहीं है कि जेएनयू में एक अलग ही तरह की विचारधारा क्यों पोषित हो रही है? किसी साधारण भारतीय को इससे कोई मतलब नहीं है कि संसद हमले में बमुश्किल ‘सबूतों के अभाव’ में छूटा कोई प्रोफेसर गिलानी फिर से उस आतंकी की जय-जयकार में क्यों लग गया -जिसे फांसी के तख़्ते पर टंगकर सच्चे अर्थों में अपने गुनाहों से मुक्ति मिल गई होगी।

या कि काश! कि जान चली जाने के बाद हमारे गुनाहों से हम मुक्त हो पाते!
चिंता, हिंसा की है। चुनौती, हिंसा है। चेतावनी, हिंसा पर है। 
हम गांधी के देश हैं। गोडसे के नहीं। न कभी थे/न होंगे।

हमारे लिए वो सारे लोग आपत्तिजनक अपराध की श्रेणी में ही आते हैं, जो किसी भी तरह से गोडसे को महिमामंडित करते हैं। पक्ष लेते हैं। सफाई देने वाले भी। इसमें वे सभी आते हैं -जो स्वयं को ‘हिन्दू’ संगठन कहते हैं।

कौन-से संगठन हैं ये? हिन्दू तो एक जीवन शैली है। धर्म नहीं। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रभावी व्याख्या की है। हिन्दुओं का कोई संगठन नहीं। और, हिंसा का तो कोई स्थान है ही नहीं।
पठानकोट आतंकी हमले पर लिखते हुए, हमने चर्चा की थी कि कैसे आतंकी, पैग़म्बर के नाम का भ्रष्ट दुरुपयोग कर रहे हैं। ठीक उसी तरह, बेंगलुरू में पब में बैठी युवतियों पर हमला करने वाले संगठन ने भी ईश्वर के नाम पर ऐसा व्यभिचार किया : श्रीराम सेने! ऐसे ही कुछ दैवीय नाम कलबुर्गी के हत्यारों के संगठन का था।

अब कानून की बात करें। 
एक षड्यंत्र शुरू हो गया है कि देशद्रोह कानून ही समाप्त कर देना चाहिए। कि यह संविधान द्वारा दिए गए अभिव्यक्ति के अधिकार के विरुद्ध है।

देशद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट के जिस प्रसिद्ध फैसले को कतिपय बुद्धिजीवी अपने पक्ष में प्रचारित कर रहे हैं -वास्तव में वही फैसला, उन्हीं के तर्क को नकार देने के लिए पर्याप्त है।
केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार। इसी मुकदमे में संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि : सरकार के विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग यदि इस दृष्टि से किया गया है कि व्यवस्था में सुधार हो -तो वह दंडनीय अपराध नहीं होगा।

संदर्भ यह है कि जेएनयू छात्रों व डीयू प्रोफेसर मामले में देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किए जाने के बाद यह प्रचार जोरों पर है कि चूंकि अंग्रेजों ने इसे लागू किया था -इसलिए इसमें देश की सरकार के विरुद्ध भड़काने को ही देशद्रोह माना है।

जबकि सरकार के विरुद्ध तो भड़काया जा सकता है। चूंकि उसमें सुधार की दृष्टि है। जैसा कि केदारनाथ सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था।
सरकार और देश। दोनों अलग हैं।
किन्तु, विद्वानों की विशेषता ही यह होती है कि वे हर बात को अपनी सुविधा से कहते हैं। वे तो इतिहास भी अपनी सुविधा से पढ़ते हैं।
जो प्रचारित नहीं किया गया, वो यह था कि केदारनाथ सिंह मुकदमे में ही सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह विरोधी धारा 124ए को पूरी तरह पुन: स्थापित और स्पष्ट कर दिया था।

स्थापित इस मायने में कि इससे पहले 1959 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने देशद्रोह कानून 124ए को अल्ट्रा वाइरीस घोषित कर दिया था। यानी अमान्य। क्योंकि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार समाप्त होता था। उसके बाद केदारनाथ सिंह मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 124ए को इन्ट्रा वाइरीस घोषित कर दिया। पुन: मान्य।
स्पष्ट इस मायने में कि दो परिस्थितियां भी रेखांकित कर दीं : 
1. उकसाना-भड़काना या नफ़रत फैलाना या ऐसा प्रयास करना -इस तरह ‘डिस्अफेक्शन टूवर्ड्स गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, अंडर लॉ’ की व्याख्या कर दी।
2. ऐसे काम शब्दों से करना/प्रयास करना।
बोलकर। लिखकर। संकेतों से। जो दिख सके।
इनसे आप समझ सकते हैं -इसे आधार मानकर देशद्रोह के मुकदमे किस पर लागू किए जा सकते हैं।
यही नहीं, चार कसौटियां भी रख दीं, जिन पर ऐसे मुकदमे, दर्ज करते समय, कसने होंगे -
* राष्ट्रीय सुरक्षा * विदेशी राष्ट्रों से संबंध 
* जनहित में कानून-व्यवस्था * राष्ट्रीय गरिमा व शुचिता
अब इससे अधिक स्पष्ट सुप्रीम कोर्ट और क्या कर सकता था?
हेमलता बनाम स्टेट ऑफ आंध्रप्रदेश मामले में जजों ने देशद्रोह मानते हुए कहा था कि - चाहे अनाज लूटने की पुस्तिका बांटने का उद्देश्य कुछ भी हो, किन्तु चूंकि उसमें बार-बार टुकड़े-टुकड़े कर डालने, हथियारों की धार तेज करने और लूट-पाट आगजनी इस तरह के तमाम हिंसक वाक्य थे जो लोगों को भड़काने और हिंसा फैलाने के लिए काफी थे।
इसके बाद ही छपे हुए शब्दों को लेकर देशभर में भारी सतर्कता व्याप्त हुई।

1870 में ताजी-रात-ए-हिंद, इंडियन पीनल कोड में शामिल किया गया यह कानून निश्चित ही अंग्रेजों ने स्वतंत्रता सेनानियों के विरोध में बनाया था। महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक पर इन्हीं धाराओं में मुकदमे चले। तिलक गर्जना के बाद, बर्मा कारागार में डाल दिए गए।

किन्तु, बावजूद इसके कि पं. नेहरू इस कानून के विरुद्ध थे, यह जारी रखा गया। मोनार्क/एम्परर की जगह सरकार ने ले ली। संविधान सभा सदस्यों ने पारित किया था। कोई बात गंभीर रही होगी न।
- क्योंकि कानून है। न्याय है। - क्योंकि सुप्रीम कोर्ट है।
- और वकील भी हैं। नेता भी तो हैं। - और वो शक्तिशाली बुद्धिजीवी। वो तो हैं ही।

कहते हैं - करने से देशद्रोह नहीं बनता। बलवंत सिंह मुकदमे में कहां कोर्ट ने माना? क्योंकि ‘खालिस्तान ज़िंदाबाद’ से देशद्रोह नहीं होता।
सच है।

किन्तु हिन्दुस्तान की बर्बादी का नारा बुलंद करना? 
विद्वानों ने एक और ग़जब की बहस खड़ी की है। बात यह आई कि देशद्रोह के कई मुकदमे सरकार ने नहीं, अदालतों ने दर्ज करवाए हैं। इस पर विद्वानों का तर्क आया है : ‘लोअर ज्यूडिशियरी’ में ऐसा होता है। हायर में नहीं। यानी जब उनकी सुविधा से कोई फैसला हो तो सही वर्ना ज्यूडिशियरी भी लोअर। जबकि निचली अदालतों में विस्तार से सुनवाई होती है। समय होता है। जिरह होती है। जांच होती है। इसलिए सज़ाएं भी सख़्त होती हैं। राजीव गांधी हत्याकांड में 26 को फांसी हुई थी। बमुश्किल चार बचे हैं। इन हत्यारों को भी तमिलनाडु विधानसभा और जयललिता बार-बार छोड़ने पर उतारू रहते हैं।

कश्मीर का उदाहरण आता है। कि वहां की विधानसभा तो हमेशा आज़ादी की मांग करती रहती है। सच है। किन्तु बर्बादी की नहीं करती। डॉ. विनायक सेन को सजा सुनाने पर हंगामा मचा था। मैं किसी भी तरह से, किसी नक्सली हिंसा का भयंकर विरोधी हूं -डॉ. सेन से कई मामलों में पूर्णत: असहमत। किन्तु उनके पक्ष में किन्तु सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को श्रेष्ठ मानता हूं : किसी तरह का साहित्य मिलना या किसी से सहानुभूति रखना कुछ सिद्ध नहीं करता।

और उदाहरण दिया था : जैसे कि गांधी की जीवनी मिलने पर कोई गांधीवादी नहीं हो जाता!

हिंसा थमे। हिंसा थके। असंभव है। किन्तु थामनी ही होगी। थकानी ही होगी। हरानी ही होगी। शब्दों की हिंसा भी।

हालात इतने गिर गए हैं कि जेएनयू से शुरू होकर सभी 46 केन्द्रीय विश्वविद्‌यालयों में तिरंगा फहराने का फैसला आते ही कांग्रेस ने गरजकर सवाल किया कि आरएसएस, शाखाओं में तिरंगा क्यों नहीं फहराता? यानी तिरंगे का भी अब विरोध?! 
जब यह काॅलम लिखा जा रहा है, हरियाणा से आरक्षण की उग्र हिंसा के समाचार आ रहे हैं। धिक्कार है।
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