हिन्दू और इस्लाम धर्मग्रंथों में सबसे बड़ा जो अंतर है वह यह कि, इस्लामी धर्मग्रंथ जाति या वर्ण की बात नहीं करते. इसलिए वे संसार के ५३ देशों में फैले हुए हैं. ज़ाहिरा तौर पर भारत के मुसलमानों ने हिंदुओं की देखा-देखी जातिवाद का प्रभाव भले ग्रहण किया हो लेकिन उनके धर्म की प्रकृति जातिवादी नहीं है. इसके ठीक विपरीत हिंदुत्व की प्रकृति ही जातिवादी है. उसकी नींव में ही जातिवाद है. दिखावे के रूप में वह अजातिवाद की चादर कभी-कभी ओढ़ लेता है.
भारत में हिंदुत्व और इस्लाम के साथ-साथ अन्य धर्म भी रहे हैं. जैसे सिक्ख, ईसाई, पारसी, जैन, यहूदी आदि. लेकिन सबने भारत की हिन्दू-दलित या महादलित जातियों के साथ एक जैसा ही शुष्क व्यवहार किया. पारसी समुदाय ने अत्यधिक आभिजात्य दिखाते हुए अपनी श्रेष्ठता और अमीरी रेखा को कुछ अधिक ही ऊपर उठा लिया. ईसाई, दलितों को ईसाई बनाने या बना ले जाने की उम्मीद तक ही सीमित रहे. बहरहाल मुसलमानों का व्यवहार दलित जातियों से बराबरी का और सद्भावपूर्ण रहा है. मैंने स्वयं अपने गाँव-शहर में मध्यवर्गीय मुसलमानों के ड्राइंगरूम में मेहतरों और दक्षिण टोले वालों को (जिन्हें हिंदुत्व इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीतने के बाद भी नहीं अपना पाया है) उनके साथ बैठकर खाते-पीते देखा है. मैंने देखा भी है, और मुझे यक़ीन भी है कि भारत की निम्नतम जाति को अपने घर में, अपने बराबर, अपने दस्तरख्वान पर बिठाकर केवल मुसलमान ही खिला सकता है. हिंदुओं में आज भी इतनी शक्ति नहीं है.
इसीलिए मुसलमानों के प्रति सवर्ण हिंदुओं की घृणा वास्तव में उनकी आंतरिक जातिवादी ग्लानि का प्रतिफल है. और यही ग्लानि धीरे-धीरे अपने ही धर्म की जातियों के लिए सामाजिक पूर्वाग्रह बन गयी है. उत्तर-प्रदेश, बिहार में यादववाद या कुर्मीवाद अथवा जाटववाद की जो अफवाहें फैलाई गयीं या फैलाई जा रहीं हैं उनका कारण यही आंतरिक ग्लानि या सामाजिक पूर्वाग्रह है. अम्बेडकर से लेकर मायावती, लालू और मुलायम जैसे दलित-पिछड़े नेताओं को सामने लाने में मुसलमानों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. मुसलमान इस देश में समतामूलक समाज की हमेशा जलने वाली मशाल रहे हैं. हाशिये पर ही सही !
लेखक: अर्श संतोष की कलम
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