ब्यूरो । पुरानी दिल्ली के बल्ली मारान की
पेचीदा-सी गलियों में से एक गली कासिम जान में गालिब की हवेली की लखावरी
ईंटों और दीवारों से झड़ता हुआ चूना । गालिब को बचपन में ही पतंग, शतरंज और
जुए की आदत लगी लेकिन दूसरी ओर उच्च कोटि के बुजुर्गों की सोहबत का लाभ
मिला ।
शिक्षित मां ने गालिब घर पर ही शिक्षा दी
जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी । मशहूर शायर
मिर्जा असदुल्लाह खां ‘गालिब’ 27 दिसंबर, 1797 को आगरा के जिस हवेली में
पैदा हुए थे, वहां अब इंद्रभान इंटर कॉलेज चलता है । कालामहल इलाके का यह
मकान गालिब के नाना का था ।
गालिब इस हवेली में 13 साल तक रहे. इसके
बाद वह दिल्ली चले गए, लेकिन दिल्ली में उनके लिए रहना बहुत मुश्किल
रहा.दिल्ली में गालिब ने बाजार सीताराम की गली कासिम जान स्थित हवेली में
गालिब ने जिंदगी का लंबा अर्सा गुजारा । एक समय ऐसा आया जब उन्हें
‘मुसलमान’ होने का टैक्स देना पड़ता था । जब उनके पास रकम नहीं होती थी,
तो हफ्तों तक कमरे में बंद रहते थे ।
उन्हें डर होता था कि यदि टैक्स नहीं
भरा तो दरोगा पकड़कर ले जाएगा. इस बात का जिक्र करते हुए गालिब आगरा में
अपने मित्रों को पत्र लिखते थे । मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने पूछा था कि
बर्फी क्या हिन्दू होती है और जलेबी क्या मुसलमान.यह मासूम सा सवाल मशहूर
शायर मिर्जा गालिब ने अपने उस मुरीद से पूछा था जो एक हिन्दू थे । उनकी
हाजिर जवाबी के लोग कायल थे । बर्फी का तोहफा आने पर उनसे पूछा गया था कि
क्या आप हिंदू के यहां से आई बर्फी खा लेगें ।
जबान और कलम के धनी मिर्जा गालिब का तपाक
से कहा था मुझे पता नहीं था कि बर्फी हिन्दू हो सकती हैं या जलेबी का भी
कोई मजहब हो सकता है । जाने-माने शायर और फिल्म गीतकार गुलजार ने यह किस्सा
सुनाया । उनका कहना था कि हर चीज को दीन का नाम देकर रोजमर्रा की जिन्दगी
तबाह कर दी जाती है जिससे देश, नस्ले सभी बरबाद हो जाते है ।
गुलजार ने बताया कि गालिब की निजी जिन्दगी
गम तथा उदासी से भरी थी लेकिन शायरी को उन्होंने गम गलत करने का रास्ता
बना लिया । उनके सात बच्चों की कम उम्र में ही मौत हो गयी थी लेकिन
उन्होंने दूसरे निकाह की बात सोची तक नहीं और लिखने में पूरी जिन्दगी झोंक
दी ।
उर्दू के महान शायर मिर्जा गालिब पर
टेलीविजन सीरियल बनाने वाले शायर, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक और निर्माता
गुलजार ने कहा कि मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब के अंदर अहम बहुत थाऔर यह
नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक था, क्योंकि उनके अंदर आत्माभिमान था । वह
फारसी के दबदबे के दौर में सहज उर्दू में शायरी करते थे ।
ऑस्कर पुरस्कार विजेता गीतकार ने कहा कि
गालिब की शायरी और बर्ताव में धर्मनिरपेक्ष भावना थी, उसी के चलते मैंने उन
पर साढ़े छह घंटे लंबा टेलीविजन सीरियल बनाया ताकि लोग गालिब जैसे महान
शायर से रूबरू हो सकें । उन्होंने कहा कि उनकी हाजिर जवाबी के लोग कायल थे ।
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