'बंगलुरू से सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी छोड़कर अपनी ज़मीन पर आ गया। जितना वहां कमाया था, उससे एक होटल खोल दिया। इस शहर में बड़ी इज़्ज़त है मेरे होटल की। नाम भी मुस्लिम नहीं रखा है। यहां हर तरह के लोग खाने आते हैं। मगर दादरी के बाद भरोसा हिल गया है। पता नहीं, कब कौन घुस आए और यहीं मांस रख दे और तमाशा बना दे। काफी सोच-समझ कर बिहार आया था कि यहां तो सब मिलकर रहते हैं। सबको पता भी है कि ये मुसलमान का होटल है, लेकिन सब उसी भरोसे के कारण खाने आते हैं। पता नहीं, बिहार में बीजेपी की सरकार बनेगी तो क्या होगा।' बिहार के कस्बे में मुस्लिम नौजवान की यह चिन्ता क्या उनकी चिन्ता से अलग है जो जंगलराज का डर फैला रहे हैं।
पटना एयरपोर्ट पर एविएटर चश्मा लगाए और पीठ के पीछे बैग लटकाए कूल टाइप दिखने वाले डॉक्टर चौधरी ने एयरपोर्ट पर पकड़ लिया। डॉक्टर चौधरी दिल्ली जा रहे थे। डॉक्टर चौधरी उनकी पत्नी सरकारी डॉक्टर हैं। भले लोग लगे। आपका शो हम लोग कभी मिस नहीं करते। इतना कहने के बाद मियां-बीबी ने एक साथ कहा कि सुना है नीतीश की सरकार आ रही है। आ गई तो जंगलराज आ जाएगा। फिर से बिहार छोड़ना पड़ेगा। मैं तो विदेश से यहां आया था पिता की सेवा करने और यहीं डॉक्टरी करने लगा। पचपन-साठ की उम्र के डॉक्टर साहब की सामाजिक पैठ इतनी है कि वे अपने हर मरीज़ से फीडबैक लेते रहते हैं कि कौन जीत रहा है। खुश होकर बताया कि हमारे इलाके का मरीज़ तो बता रहा है कि भाजपा को ही वोट पड़ेगा, लेकिन भाई साहब पता नहीं जंगलराज न आ जाए।
पटना का मध्यमवर्गीय और कुलीन तबका जंगलराज से डरा हुआ है। यह डर कई तबके में स्वाभाविक तौर पर भी है। लेकिन यही डर ग़रीब तबके में क्यों नहीं है। पटना में बीजेपी मुख्यालय के ठीक सामने आठ-दस रिक्शेवालों के साथ चाय पी रहा था। उनसे भी यही सवाल दाग दिया कि जंगलराज आ गया तो। एक ने तड़ से जवाब दिया कि हमारे लिए तो पूंजीपति का राज भी जंगलराज है। भाजपा पूंजीपति की पार्टी है। खैनी बनाते हुए उसके मुंह से पूंजीपति शब्द का निकलना हैरान कर गया। दूसरी आवाज़ आई कि ग़रीब का राज आएगा तो सबको जंगलराज लगता है।
इन तीनों प्रसंगों का सामाजिक विश्लेषण होना चाहिए। भय का अलग-अलग तबके में क्या मतलब है। बीजेपी के आने से कौन डरा हुआ है और नीतीश-लालू के आने से कौन। दोनों ही धारा भय का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। ये और बात है कि एक किस्म के भय को ज़्यादा मुखरता मिली है और एक किस्म का भय मीडिया के विमर्श से ग़ायब है मगर दादरी की घटना के बाद घर कर गया है। क्या हमारे राजनीतिक दलों ने भय की राजनीति का बंटवारा कर लिया है। तुम इसको डराओ, हम उसको डराते हैं।
क्यों किसी को लगता है कि इनका, उनका राज आएगा तो हम पर कयामत टूटेगी। जवाब साधारण है। किसी का भी राज हो, लोगों के मन में एक बात साफ है, थाना-पुलिस पर जनता का राज नहीं होता है। थाना पुलिस हमेशा उसकी होती है, जिसका राज होता है। अगर हमारे मुल्क में पेशेवर पुलिस प्रशासन होता तो लोग भय की राजनीति के शिकार न होते। ज़ाहिर है पुलिस पर न तो ऊंची जाति के डॉक्टर को भरोसा है न मुस्लिम नौजवान को। किसी भी पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधार को लागू नहीं किया। पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाज़ी को समाप्त करने की पहल नहीं की। 2014 के चुनाव के समय किरण बेदी और यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह पुलिस सुधार की काफी बातें करते थें। अब ये दोनों ऐसे चुप हैं जैसे पुलिस सुधार का काम पचास साल पहले हो गया हो। पुलिस सुधार के मामले को भी लोगों ने राजनीतिक निष्ठा की भेंट चढ़ा दिया। न आम जनता मांग करती है, न ख़ास जनता।
अब मैं मुस्लिम नौजवान और डॉक्टर दंपति से कुछ कहना चाहता हूं। पहले मुस्लिम नौजवान से। आप ज़रा नज़र घुमा कर देखिए। सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में मुसमलान होटल चला रहे हैं। छोटा-मोटा कारोबार कर रहे हैं। बिहार में ही कई मुस्लिम लड़कों से मिला, जिनकी अपनी कंपनियां हैं। सिवान के हथौड़ा गांव का मुखिया कलकत्ता में कंपनी चलाता है। सभी मोबाइल कंपनियों का टावर लगाता है लेकिन वो अपने गांव का मुखिया इसलिए बनने आ गया ताकि वो कुछ कर सके। क्या उन सबको डर जाना चाहिए कि बीजेपी का राज आ जाएगा। बीजेपी को ज़रूर सोचना चाहिए कि बैठे-बिठाए वो इन नौजवानों के डर को क्यों बढ़ा रही है। भले सीधे तौर पर बीजेपी की कोई भूमिका न हो, लेकिन भय का कारण उससे जोड़ा जा रहा है जैसे बीजेपी, नीतीश और लालू को भय से जोड़ती है।
डॉक्टर साहब से यह कहना है कि आप अपने पेशे के भीतर के राज को देखिये। किस तरह से गंगा ब्रिज पर एंबुलेंस का सौदा होता है और नर्सिंग होम मरीज़ों को लूट रहे हैं। उनके पेशे के भीतर का जंगलराज लालू के समय भी था, नीतीश के समय तो फला-फूला ही और बीजेपी के राज में भी रहेगा। अगर वे जंगलराज को लेकर ईमानदार हैं तो फिर अपने और अपने पेशे के भीतर झांककर देखें कि क्या उन लोगों ने जंगलराज नहीं बनाया है। ग़रीब मरीज़ों को किस तरह से लूटा जा रहा है ये कौन डॉक्टर नहीं जानता है। बेवजह जंगलराज को हवा न दें।
अगर हम वाकई जंगलराज या दंगाराज को लेकर ईमानदार होते तो दोनों में कोई अंतर नहीं करते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंगेर की रैली में सज़ायाफ्ता सूरजभान सिंह के साथ मंच साझा क्यों किया। 'पूर्व सांसद सूरजभान सिंह जी' जैसे आदरसूचक शब्दों का इस्तमाल क्यों किया? सूरजभान सिंह किस कोटे से मंच पर बिठाए गए। जाति या आपराधिक रिकॉर्ड के कोटे से। क्या जंगलराज के दौर में सूरजभान जनसेवा कर रहे थे? आज के इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी है कि आरजेडी के पूर्व सांसद और सज़ायाफ्ता शहाबुद्दीन जेल से ही अपना राजनीतिक साम्राज्य चला रहे हैं। सूरजभान और शहाबुद्दीन में क्या अंतर है। अगर लोग जंगलराज या दंगाराज को लेकर इतने ही ईमानदार हैं तो वे उन लोगों को वोट क्यों देते हैं जिनका आपराधिक रिकॉर्ड रहा है। क्या डॉक्टर साहब और वो मुस्लिम नौजवान इन दोनों स्थितियों को देख पा रहे हैं।
इसलिए भय की राजनीति के कारणों का पता लगाइए। चुनकर सुविधा और जाति-धर्म के हिसाब से अंतर करना बंद कीजिए। न तो किसी को अपना होटल बंद करने की ज़रूरत है और न ही बिहार छोड़कर लंदन जाने की। रही बेहतर पढ़ाई, डिग्री, और नौकरी के लिए बाहर जाने की बात तो इसके लिए बहाना मत बनाइए। जंगलराज नहीं होगा तब भी लोग हावर्ड जाएंगे पढ़ने। होगा तब भी जाएंगे। समस्या जंगलराज और दंगाराज से है तो इसके प्रति ज़रा ईमानदारी से सोचिए। इससे फायदा सिर्फ राजनीतिक दलों को ही होता है। दोनों डरपोक से तो अच्छा है उस ग़रीब का डर जो आज भी राजनीति को अमीर और ग़रीब के चश्मे से देख रहा है।
पटना एयरपोर्ट पर एविएटर चश्मा लगाए और पीठ के पीछे बैग लटकाए कूल टाइप दिखने वाले डॉक्टर चौधरी ने एयरपोर्ट पर पकड़ लिया। डॉक्टर चौधरी दिल्ली जा रहे थे। डॉक्टर चौधरी उनकी पत्नी सरकारी डॉक्टर हैं। भले लोग लगे। आपका शो हम लोग कभी मिस नहीं करते। इतना कहने के बाद मियां-बीबी ने एक साथ कहा कि सुना है नीतीश की सरकार आ रही है। आ गई तो जंगलराज आ जाएगा। फिर से बिहार छोड़ना पड़ेगा। मैं तो विदेश से यहां आया था पिता की सेवा करने और यहीं डॉक्टरी करने लगा। पचपन-साठ की उम्र के डॉक्टर साहब की सामाजिक पैठ इतनी है कि वे अपने हर मरीज़ से फीडबैक लेते रहते हैं कि कौन जीत रहा है। खुश होकर बताया कि हमारे इलाके का मरीज़ तो बता रहा है कि भाजपा को ही वोट पड़ेगा, लेकिन भाई साहब पता नहीं जंगलराज न आ जाए।
पटना का मध्यमवर्गीय और कुलीन तबका जंगलराज से डरा हुआ है। यह डर कई तबके में स्वाभाविक तौर पर भी है। लेकिन यही डर ग़रीब तबके में क्यों नहीं है। पटना में बीजेपी मुख्यालय के ठीक सामने आठ-दस रिक्शेवालों के साथ चाय पी रहा था। उनसे भी यही सवाल दाग दिया कि जंगलराज आ गया तो। एक ने तड़ से जवाब दिया कि हमारे लिए तो पूंजीपति का राज भी जंगलराज है। भाजपा पूंजीपति की पार्टी है। खैनी बनाते हुए उसके मुंह से पूंजीपति शब्द का निकलना हैरान कर गया। दूसरी आवाज़ आई कि ग़रीब का राज आएगा तो सबको जंगलराज लगता है।
इन तीनों प्रसंगों का सामाजिक विश्लेषण होना चाहिए। भय का अलग-अलग तबके में क्या मतलब है। बीजेपी के आने से कौन डरा हुआ है और नीतीश-लालू के आने से कौन। दोनों ही धारा भय का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। ये और बात है कि एक किस्म के भय को ज़्यादा मुखरता मिली है और एक किस्म का भय मीडिया के विमर्श से ग़ायब है मगर दादरी की घटना के बाद घर कर गया है। क्या हमारे राजनीतिक दलों ने भय की राजनीति का बंटवारा कर लिया है। तुम इसको डराओ, हम उसको डराते हैं।
क्यों किसी को लगता है कि इनका, उनका राज आएगा तो हम पर कयामत टूटेगी। जवाब साधारण है। किसी का भी राज हो, लोगों के मन में एक बात साफ है, थाना-पुलिस पर जनता का राज नहीं होता है। थाना पुलिस हमेशा उसकी होती है, जिसका राज होता है। अगर हमारे मुल्क में पेशेवर पुलिस प्रशासन होता तो लोग भय की राजनीति के शिकार न होते। ज़ाहिर है पुलिस पर न तो ऊंची जाति के डॉक्टर को भरोसा है न मुस्लिम नौजवान को। किसी भी पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधार को लागू नहीं किया। पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाज़ी को समाप्त करने की पहल नहीं की। 2014 के चुनाव के समय किरण बेदी और यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह पुलिस सुधार की काफी बातें करते थें। अब ये दोनों ऐसे चुप हैं जैसे पुलिस सुधार का काम पचास साल पहले हो गया हो। पुलिस सुधार के मामले को भी लोगों ने राजनीतिक निष्ठा की भेंट चढ़ा दिया। न आम जनता मांग करती है, न ख़ास जनता।
अब मैं मुस्लिम नौजवान और डॉक्टर दंपति से कुछ कहना चाहता हूं। पहले मुस्लिम नौजवान से। आप ज़रा नज़र घुमा कर देखिए। सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में मुसमलान होटल चला रहे हैं। छोटा-मोटा कारोबार कर रहे हैं। बिहार में ही कई मुस्लिम लड़कों से मिला, जिनकी अपनी कंपनियां हैं। सिवान के हथौड़ा गांव का मुखिया कलकत्ता में कंपनी चलाता है। सभी मोबाइल कंपनियों का टावर लगाता है लेकिन वो अपने गांव का मुखिया इसलिए बनने आ गया ताकि वो कुछ कर सके। क्या उन सबको डर जाना चाहिए कि बीजेपी का राज आ जाएगा। बीजेपी को ज़रूर सोचना चाहिए कि बैठे-बिठाए वो इन नौजवानों के डर को क्यों बढ़ा रही है। भले सीधे तौर पर बीजेपी की कोई भूमिका न हो, लेकिन भय का कारण उससे जोड़ा जा रहा है जैसे बीजेपी, नीतीश और लालू को भय से जोड़ती है।
डॉक्टर साहब से यह कहना है कि आप अपने पेशे के भीतर के राज को देखिये। किस तरह से गंगा ब्रिज पर एंबुलेंस का सौदा होता है और नर्सिंग होम मरीज़ों को लूट रहे हैं। उनके पेशे के भीतर का जंगलराज लालू के समय भी था, नीतीश के समय तो फला-फूला ही और बीजेपी के राज में भी रहेगा। अगर वे जंगलराज को लेकर ईमानदार हैं तो फिर अपने और अपने पेशे के भीतर झांककर देखें कि क्या उन लोगों ने जंगलराज नहीं बनाया है। ग़रीब मरीज़ों को किस तरह से लूटा जा रहा है ये कौन डॉक्टर नहीं जानता है। बेवजह जंगलराज को हवा न दें।
अगर हम वाकई जंगलराज या दंगाराज को लेकर ईमानदार होते तो दोनों में कोई अंतर नहीं करते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंगेर की रैली में सज़ायाफ्ता सूरजभान सिंह के साथ मंच साझा क्यों किया। 'पूर्व सांसद सूरजभान सिंह जी' जैसे आदरसूचक शब्दों का इस्तमाल क्यों किया? सूरजभान सिंह किस कोटे से मंच पर बिठाए गए। जाति या आपराधिक रिकॉर्ड के कोटे से। क्या जंगलराज के दौर में सूरजभान जनसेवा कर रहे थे? आज के इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी है कि आरजेडी के पूर्व सांसद और सज़ायाफ्ता शहाबुद्दीन जेल से ही अपना राजनीतिक साम्राज्य चला रहे हैं। सूरजभान और शहाबुद्दीन में क्या अंतर है। अगर लोग जंगलराज या दंगाराज को लेकर इतने ही ईमानदार हैं तो वे उन लोगों को वोट क्यों देते हैं जिनका आपराधिक रिकॉर्ड रहा है। क्या डॉक्टर साहब और वो मुस्लिम नौजवान इन दोनों स्थितियों को देख पा रहे हैं।
इसलिए भय की राजनीति के कारणों का पता लगाइए। चुनकर सुविधा और जाति-धर्म के हिसाब से अंतर करना बंद कीजिए। न तो किसी को अपना होटल बंद करने की ज़रूरत है और न ही बिहार छोड़कर लंदन जाने की। रही बेहतर पढ़ाई, डिग्री, और नौकरी के लिए बाहर जाने की बात तो इसके लिए बहाना मत बनाइए। जंगलराज नहीं होगा तब भी लोग हावर्ड जाएंगे पढ़ने। होगा तब भी जाएंगे। समस्या जंगलराज और दंगाराज से है तो इसके प्रति ज़रा ईमानदारी से सोचिए। इससे फायदा सिर्फ राजनीतिक दलों को ही होता है। दोनों डरपोक से तो अच्छा है उस ग़रीब का डर जो आज भी राजनीति को अमीर और ग़रीब के चश्मे से देख रहा है।
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