एक लेखक के पास विरोध के दो ही विकल्प होते हैं उसका लेखन और उसके पुरस्कार। वह या तो लिखकर प्रतिरोध कर सकता है या पुरस्कार लौटा कर। भारत में यह नई बात नहीं है। नोबेल से सम्मानित रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 'नाइटहुड' का सम्मान विरोध में ही ठुकराया। श्री नारायण चतुर्वेदी जैसे हिंदी के लेखकों ने भी ऐसा किया। विश्व स्तर पर ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुई हैं।
1964 में ज्यां पॉल सार्त्र ने नोबेल पुरस्कार रिजेक्ट कर दिया था। अगर एक सवर्ण हिन्दू आतंकवादी संगठन दिनदहाड़े साहित्य अकादमी से सम्मानित लेखक की हत्या कर देता है और साहित्य अकादमी जैसी संस्था महीने भर मौन रहती है, तो क्या लेखक विरोध तब करेंगे जब उन्हें बारी-बारी से मारा जाएगा। अब पुरस्कार लौटा रहे लेखकों के घर पुलिस भेजी जा रही है। पुरस्कार लौटा चुके गुजरात के लेखक गणेश देवी, जिन्हें 1992 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था, के घर पुलिस यह जानने गयी थी कि क्या देश के लेखक सरकार के ख़िलाफ़ कोई बड़ा आंदोलन करना चाहते हैं ? यानी वास्तव में ही यह एक बुरा दौर है !
आवाज़ों को दबाने की कोशिश ज़ारी है। ऐसे में भारतीय लेखकों के विरोध और उनकी एकता को सलाम। सत्ता लेखक को हल्के में ले सकती है लेकिन उसके लेखन को नहीं ! आज भी आततायी सत्ता सबसे अधिक लेखक से डरती है सरकार की बौखलाहट ने यह सिद्ध कर दिया है।
लेखक: Arsh Santosh

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