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गोहत्या पर यह कैसी राजनीति?

गोमांस खाने के शक को लेकर मोहम्मद इखलाक की जो हत्या हुई है, उसकी भर्त्सना पूरे देश ने की है लेकिन फिर भी क्या कारण है कि इस मुद्‌दे पर देश में बेहद कटु और ओछी बहस चल पड़ी है? सिर्फ नेताओं ही नहीं, बुद्धिजीवियों में भी आरोपों−प्रत्यारोपों की बाढ़-सी आ गई है। कुछ साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए हैं। इस बात की किसी को चिंता नहीं है कि सारी दुनिया में इस एक दुर्घटना से भारत की छवि कितनी विकृत हो रही है।

जहां तक साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने का प्रश्न है, उसका औचित्य मेरी समझ में नहीं आया। क्या साहित्य अकादमी ने इखलाक की हत्या करवाई थी? या उसके द्वारा प्रकाशित किसी पुस्तक को पढ़कर उसके गांव वालों ने इखलाक की हत्या की थी? साहित्य अकादमी और इखलाक का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। लेखकों का यह तर्क भी किसी के पल्ले नहीं पड़ा कि प्रधानमंत्री ने उस दुर्घटना पर कोई बयान नहीं दिया, इससे नाराज होकर उन्होंने पुरस्कार लौटा दिए। क्या प्रधानमंत्री साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होता है? अकादमी स्वायत्त संस्था है। यदि वह प्रधानमंत्री या सरकार के इशारों पर काम करती है तो ऐसी अकादमी से पुरस्कार लेना ही कौन-से सम्मान की बात है? जहां तक प्रधानमंत्री के बयान देने या न देने का सवाल है, यह उनकी मर्जी है। इस मसले पर आपके इस्तीफों की तुक क्या है? प्रधानमंत्री तो सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के मामले में भी ‘मौनी बाबा’ बने रहे। तब किसी ने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? जब दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी जैसे साहित्यकारों और विचारकों की शर्मनाक हत्या हुई, तब भी पुरस्कार लौटाने वालों का अंतकरण कुंभकर्ण क्यों बना रहा? सिर्फ उदयप्रकाश ने ही अपने हमसफरों के साथ हमदर्दी दिखाई।

अब प्रधानमंत्री ने बयान दे दिया है, ऐसा दावा अखबार और सारे टीवी चैनल (मूरख बक्से) कर रहे हैं। क्या बयान दिया है, मोदी ने? इखलाक और बिसहड़ा के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला। बस राष्ट्रपति के बयान की प्रशंसा कर दी है। सांप्रदायिक सद्‌भाव की घिसी−पिटी बात फिर दोहरा दी है। उन्होंने राजनाथ सिंह और अरुण जेटली की तरह भी कुछ नहीं कहा है। अब पुरस्कार लौटाने वाले क्या करेंगे? क्या वे प्रधानमंत्री को उनके बयान का मसविदा बनाकर भेजेंगे? मैं पूछता हूं कि हमारे नेताओं के बयानों का महत्व क्या है? वे कौन-सी अकल या साहस की बात कहने की क्षमता रखते हैं? इखलाक की हत्या, गोमांस भक्षण और सांप्रदायिक सद्‌भाव पर वे कौन-सी मौलिक बात कह रहे हैं? यदि मोदी सचमुच दादरी-कांड पर कोई बयान दे भी देते तो क्या हो जाता? जो लोग गोमांस या मांस खाते हैं, क्या उनके कहने से वे शाकाहारी हो जाते? या जो लोग गोहत्या के बदले मानव-हत्या करने पर उतारू हो जाते हैं, वे अपने आचरण को सुधारने के लिए तैयार हो जाते? नेताओं में आज नैतिक बल लगभग शून्य हो गया है। राजनीतिक लोगों में राजबल तो है, नैतिक बल नहीं। इस नैतिक बल का प्रयोग साधु−संत, समाज−सुधारक, लेखक, कवि और विचारक तो कर सकते हैं, लेकिन इसकी उम्मीद नेताओं से करना वैसा ही है जैसा रेत में नाव चलाना।

इस दुर्घटना को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश किस नेता ने नहीं की है? कौन-कौन इखलाक के घर नहीं हो आया है, लेकिन असली नैतिक साहस का परिचय तो उसी गांव के लोगों ने दिया है। इखलाक पर हमले की जब तैयारी हो रही थी तो उनके तीन हिंदू नौजवान पड़ोसियों ने 70 मुसलमानों को रातोरात गांव से निकाला। वे रात को दो बजे तक उन लोगों को गांव का तालाब पार करवाते रहे। मुसलमान बच्चों को अपने कंधों पर बिठाकर उन्होंने तालाब पार करवाया। इखलाक के छोटे बेटे ने कहा हम अब दिल्ली या चेन्नई में रहेंगे तो पूरा गांव उमड़ आया। गांव के लोगों ने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की कि आप यहीं रहिए और वे रह गए। हमारे नेताओं से ज्यादा साहस और नैतिकता का परिचय तो हमारे वायुसेना प्रमुख अरूप राहा ने दिया। इखलाक का छोटा बेटा हमारी वायु-सेना में काम करता है। राहा ने कहा कि इखलाक के परिवार को भारत की वायुसेना पूर्ण सुरक्षा प्रदान करेगी। मैं समझता हूं के सारे देश ने एक स्वर से इखलाक की हत्या की निंदा की है। यदि इस मुद्‌दे पर प्रधानमंत्री ने दो-टूक बात नहीं कही है तो उसके जो भी परिणाम होंगे, वे स्वयं भुगतेंगे।

यह ठीक है कि गोवंश की रक्षा और संवर्द्धन की बात संविधान में कही गई है और अनेक राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध लगा हुआ है। यदि गोहत्या अपराध है तो जिस पर भी उसका शक हो, उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। यह अक्षम्य है कि गोप्रेमी कानून अपने हाथ में ले लें और किसी भी मनुष्य की हत्या कर दें? क्या पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है? गाय को माता का दर्जा इसीलिए दिया गया है कि वह एक अत्यंत उपयोगी पशु है, लेकिन हम यह न भूलें कि पशु पशु है और मनुष्य मनुष्य है। गोहत्या अपराध है, लेकिन गोमांस-भक्षण नहीं। गोमांस खाने की अफवाह के आधार पर किसी मनुष्य की हत्या कर देना कौन-सा धर्म है? यह धर्म नहीं, अधर्म है। यह न्याय नहीं, अन्याय है। क्या कानून के डंडे से आप गोमांस-भक्षण छुड़ा सकते हैं? गांधीजी ने भी कभी यही सवाल किया था? कोई आदमी क्या खाए और क्या पिए, इन सवालों पर खुली बहस होनी चाहिए न कि अपनी धार्मिक और सांप्रदायिक मान्यताएं एक-दूसरे पर थोपने की कोशिश होनी चाहिए। गोमांस क्या, मांस खाने को ही आजकल विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र हानिकारक मानने लगा है। पर्यावरण और आर्थिक दृष्टि से भी वह उपादेय नहीं है। इस दृष्टि से गाय के मांस और सूअर के मांस में क्या फर्क है? दोनों ही अखाद्य हैं। ये प्रश्न ऐसे हैं, जिन पर तंग नज़रिये और धार्मिक उन्माद का चश्मा चढ़ाकर देखने से किसी भी देश या समाज का भला नहीं हो सकता। अफसोस है कि पहले से बिगड़े हुए इस मुद‌्दे को हमारे नेताओं और साहित्यकारों ने और भी अधिक पेचीदा बना दिया है।

इखलाक की हत्या के मुद्‌दे को हमारे नेताओं-साहित्यकारों ने ऐसा रूप दे दिया है, जिससे विदेशों में भारत की छवि विकृत हो रही है। विदेशी टीवी चैनलों-अखबारों ने मुझसे बात करते हुए जैसे प्रश्न किए उनसे लगता था कि वर्तमान सरकार ने सारे देश को सांप्रदायिकता की भट्‌ठी में झोंक दिया है। देश में तानाशाही का माहौल बन गया है। मुझे उन्हें समझाना पड़ा कि कुछ सिरफिरों के कुकर्म के कारण आप भारत के बारे में गलत राय मत बनाइए। भारत पूरी तरह से सहिष्णु है, बहुलतावादी है और अपनी उदारवादी सनातन परंपरा से जुड़ा हुआ है। किसी नेता या सरकार की आज ऐसी हैसियत नहीं है कि वो भारत के लोकतंत्र और सांप्रदायिक सद्‌भाव के माहौल को पामाल कर सके।
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