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कल्पेश याग्निक का कॉलम: नेता तो बनाएंगे ही, हम क्यों बने हुए हैं हिन्दू-मुसलमान?

ये हमारी क्या हालत हो गई,
गीत हिन्दू हो गए, गज़ल मुसलमां हो गई
- शायर का नाम याद नहीं, इसलिए क्षमाप्रार्थी।


ख़बर चीख रही थी : इखलाक का आखिरी कॉल हिन्दू दोस्त को था।
माथा क्यों नहीं ठनकता हमारा? ‘दोस्त’ भी क्या धर्म देखकर बनाए जाते हैं? दोस्त तो बनाए भी कहां जाते हैं? वो तो हो जाते हैं। प्यार की तरह।

किन्तु हम -मैं, आप और हम सभी- इसे चुपचाप सुन लेते हैं। पढ़ लेते हैं। मैं और मेरी तरह के पत्रकार-संपादक भी लिखते रहते हैं। लिखते/पढ़ते जा रहे हैं।
क्यों? क्योंकि
  • या तो आप इतने अच्छे हैं कि ऐसी बातों को महत्व ही नहीं देते।
  • या तो आप इतने व्यस्त हैं कि ऐसी बातों को सोचने का समय ही कहां हैं?
  • या तो आप इतने सरल हैं कि मानकर चलते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम को ऐसे ही पुकारा जाएगा।
  • या तो आप इतने धार्मिक हैं कि हिन्दुओं का क्या हुआ, हमेशा जानना चाहते हैं। इतने शरा के पक्के हैं कि मुसलमानों पर क्या गुज़री, मालूमात में गहरी दिलचस्पी है।
  • या कि आप इतने सेकुलर, धर्मनिरपेक्ष हैं कि हमेशा जानने को उत्सुक रहते हैं कि कहीं अल्पसंख्यकों पर कोई अत्याचार तो नहीं कर रहा? या कि ऐसे हिन्दू हैं -जो राष्ट्रवादी कहलवाना पसंद करते हैं- और हमेशा ढूंढ़ते रहते हैं कि, देखिए; मुसलमान थे, इसलिए हंगामा खड़ा हो गया। या कि ऐसे मुसलमान हैं कि हर घटना में हिन्दू उग्रवाद, भगवा आतंकवाद या यूं भी जु़ल्म और जख़्म महसूस कर, ख़ुद को महफूज़ नहीं समझते।

सुनकर बुरा लगेगा - किन्तु सच तो यही है कि आप इन पांच तरह के लोगों की श्रेणियों में ही हैं। और रहकर लगातार धोखा ही तो खा रहे हैं।

मोहम्मद इखलाक का परिवार उत्तरप्रदेश के दादरी में बिसाहड़ा गांव में क्यों रहता था? विचित्र प्रश्न है। कोई कहीं क्यों रहता है? कोई भी कारण हो जाता है। जहां ज़मीन, खेती, नौकरी, धंधा, काम, पढ़ाई, खानदान होते हैं, वहां हम रहने लगते हैं।

बस, इतना ही सहज है। आज देश को, हर नागरिक को यह विस्तार से समझाने के प्रयास हो रहे हैं कि वह इलाका कैसा है, जहां इखलाक परिवार रहता है। इतनी गहराई से बताया जा रहा है कि वहां 30-40 परिवार ही हैं मुसलमानों के। बस्ती जबकि 4000 की है। सब राजपूतों की। आसपास 65 गांवों में सिसौदिया राजपूतों का बाहुल्य है। 85 गांव तोमर राजपूतों के प्रभुत्व वाले हैं। बल्कि 84 गांव! इतना तक बताया जा रहा है!

इसी तरह 70 वर्षों का दादरी की शांति का इतिहास गिनाया जा रहा है। कि यहां भाईचारा रहा है। कोई मुस्लिम यहां असुरक्षित नहीं रहा।
ये सब ठीक ही लगते हैं सुनने-पढ़ने में। किन्तु इतने निर्दोष, इतने मासूम वाक्य हैं नहीं ये।

जैसे इसी बीच, हमारे ही रुख, रुचि, रुझान को भांपते हुए देखिए कैसी-कैसी घटनाएं, खबरें बन बैठीं।
  • मुस्लिम युवक ने कुंए में कूद कर बचाई गाय की जान।
  • हिन्दू कर रहे हैं मस्जिद की रक्षा।

तो हम समझ रहे हैं कि ये सौहार्द बढ़ाने वाली प्रेरक खबरें हैं। वास्तव में ये हमें बार-बार हिन्दू-मुसलमान के अलग होने का अहसास कराने वाली खबरें हैं।
उप्र के ऐसे ही इलाकों पर लिखी प्रेमचंद्र की कहानी ‘मंदिर और मस्जिद’* पढ़नी चाहिए।
जैसे इखलाक का दोस्त मनोज, बचपन से दोस्त था। इसलिए नहीं था कि साम्प्रदायिक सद्‌भाव रहे। वो तो दोस्त था ही। जैसे कि हम सभी के हर तरह के दोस्त होते हैं।

वास्तव में ‘साम्प्रदायिक सद्‌भाव’ शब्द जितनी बार सुनने में आते हैं- उसमें साम्प्रदायिक ही हावी रहता है। सद्‌भाव पीछे छूट जाता है।
यही अंतर हमें समझना होगा।
एक मुसलमान की हत्या, डेढ़-दो सौ हिन्दुओं की उन्मादी भीड़। पथराव। हिंसा। पीट-पीटकर मार डालने वाला पाश्विक कृत्य। समूचे देश को धक्का पहुंचाने वाला जघन्य अपराध। अफवाह फैलाई गई थी कि इखलाक ने गौहत्या कर, गौमांस -बीफ- खाया। एक मनगढ़ंत, सफ़ेद झूठ। कुछ उपद्रवियों को इकट्‌ठा करने के लिए भड़काने वाला कुकृत्य। षड्यंत्र।

किन्तु हमें यह सोचकर भी धक्का लगना चाहिए कि अफवाह नहीं भी होती और सच भी होता तो भी कोई भीड़ कैसे किसी के घर में घुसकर ऐसे हत्या कर सकती है? गौमांस है या नहीं, इसे जांचने के लिए उस मांसाहार को फॉरेन्सिक लैब भेजा गया - जो इखलाक के फ्रिज में मिला था। क्यों भेजा गया जांच के लिए? क्या उन आततायी सौ-डेढ़ सौ हत्यारों की संतुष्टि के लिए? या कि ये जो हमारी पांच श्रेणियां हैं -हम सभी जिसमें हैं- उनके लिए?
हमारे लिए ही।

क्यों? क्योंकि हमने भी तो ‘एक मुसलमान’, ‘डेढ़-दो सौ हिन्दू’ ऐसे ही तो पढ़ा-सुना।
‘शैतान’ की भी चर्चा हम अब खूब कर रहे हैं, जो उभरा दादरी की दरिंदगी से।
जानना महत्वपूर्ण होगा कि ‘शैतान’ की शुरुआत लालू प्रसाद यादव ने नहीं की। सुर्खियां, अलबत्ता उन्हीं से बनी। ‘शैतान’ शब्द सबसे पहले केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा लाए। वे गौतमबुद्ध नगर लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित सांसद हैं। दादरी इसी क्षेत्र में आता है। उनका वह वक्तव्य तो विवादों में आया कि यह ‘हत्या’ और ‘षड्यंत्र’ नहीं है - बल्कि ‘दुर्घटना’ है, उन्होंने तो यह भी कहा था कि वे डाॅक्टर हैं - और उन्हीं के कैलाश नर्सिंग होम, नोएडा में इखलाक के बेटे दािनश को भर्ती कराया गया था। उन्होंने दावा किया कि अपने 30 वर्षों के मेडिकल जीवन में उन्होंने ऐसा कभी नहीं देखा कि हमलावर लाठियां चलाएं और जिन्हें पीटा जा रहा हो - उन्हें फ्रैक्चर तक न हो! आगे कहा था कि ‘कोई शैतान सिर पर मार गया होगा, भीड़ में।’

फिर लालू ने हिन्दू भी गौमांस खाते हैं, कहते हुए मांस खाने वाले सभ्य नहीं होते, जैसे बड़े विवाद खड़े कर दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हालांकि नेताओं की बात न सुनने की बहुत अच्छी बात कहकर राष्ट्रपति की ‘मिलजुलकर बुनियादी मूल्यों को सहेजने’ वाली बात ही सुनने-मानने पर जोर दिया- तथापि बिहार चुनाव को ‘शैतान’ के इर्दगिर्द खड़ा भी कर दिया।

जो गाय की चिंता करते हैं, गौमाता कहते हैं - उनकी श्रद्धा का पूरा सम्मान है। किन्तु हमारी श्रद्धा और हमारे कर्म - दो भिन्न बातें हैं। आए दिन स्कूल से लौट रहीं बच्चियां, सड़क पर गायों को तड़पता देख रो पड़ती हैं। बूढ़ी, बीमार गायों को सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। फिर कुछ संस्थाएं उन्हें गौआश्रम में रखती हैं। हम बातों में उनकी प्रशंसा कर देते हैं। हर वर्ष हजारों गायों को ट्रकों में भरकर न जाने कहां, क्यों, कौन भेजता है -कौन पकड़ता है- फिर क्या होता है - कोई नहीं जानता। किन्तु समाचार आते रहते हैं। हम उतनी ही श्रद्धा से इन्हें देखते-पढ़ते हैं जितनी श्रद्धा गायों के प्रति है। 45 हजार तो बूचड़खाने ही हैं। भारत मांस का विश्व में सबसे बड़ा निर्यातक है। मांस निर्यातकों को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह की सरकारी छूट है।

किन्तु प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न विकट है। विकराल है। विचित्र भी है।
हम कहते हैं, नेता देश को हिन्दू-मुसलमान के रूप में बांट रहे हैं।
हम हर घटना, हर हमले, हर दंगे और हर आतंकी विस्फोट के बाद नेताओं को ही साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए कोसते हैं।
यह सच भी है कि नेता ऐसा करते हैं।
किन्तु वे तो स्वार्थी हैं। ग़लत हैं। बुरे हैं।
किन्तु हम तो अच्छे हैं।
अच्छे उतने न भी हों - तो भी हम लोगों को बांटना तो नहीं ही चाहते ।
कारण कोई ऊंचा आदर्श नहीं होना आवश्यक नहीं है। हमारी वो पांच श्रेणियां ही हमें अच्छा बना देती है।
किन्तु हमें केवल अच्छा नहीं होना चाहिए।
हमें जिम्मेदार होना चाहिए। जिम्मेदार नागरिक। जिम्मेदार इन्सान।
तभी हम हिन्दू-मुसलमान से कहीं ऊंचे होंगे। बल्कि ऊंचे होने का भी कोई प्रश्न नहीं है। हमारा धर्म - मजहब हमारा जन्म तय करता है। वो तो हम रहेंगे ही। इसका बाकी से कोई मतलब नहीं है। नहीं होना चाहिए।

दिल्ली, गुजरात, असम और उत्तरप्रदेश के भीषण दंगों ने हमारी सभी संवेदनाओं को गहरे तक झकझोरा। किन्तु कहीं न कहीं हमें हिंसा, हत्याएं और हमले संवेदनहीन भी बना गए हैं।
कहीं न कहीं हम इन्सान व इन्सानियत से हटकर हिन्दू और मुसलमान हो गए हैं। 
क्योंकि नेता भड़काते हैं। तो हम भड़कते क्यों हैं?
एक तरफ तो हम कह रहे हैं सारा राष्ट्र जग चुका है। मीडिया नहीं दिखाएगा तो क्या, सोशल मीडिया तो है। वो सच दिखाएगा। सबकुछ सोशल मीडिया तय करने लगेगा। क्योंकि जनभावनाएं वहां जो रहेंगी। सच भी है। 
किन्तु अचानक वहां हम एंटी-सोशल क्यों होने लगते हैं? हम फ्रिज में पड़े मांसाहार का कहीं से फोटो ले आते हैं। उसे बीफ घोषित करते हैं। लाइक। शेयर। पता नहीं क्या-क्या?
पाषाण युग जैसी बर्बर हत्या को हम मुस्लिम या हिन्दू में बांट भी कैसे सकते हैं?

जैसे उत्तरप्रदेश पुलिस ने कहा कि होमगार्ड जवान ने अफवाह फैलाई थी। तो क्या ‘होमगार्ड’ अफवाह फैलाकर हत्याएं कराने वाला विभाग हो जाएगा? कतई नहीं। हत्यारों का क्या धर्म?
किन्तु एक भ्रष्ट बहस भी खड़ी करने का प्रयास आरंभ हो चुका है। कि हिन्दू राष्ट्र बनाने का षड़यंत्र शुरू हो रहा है। कौन-सा हिन्दू राष्ट्र? कहां बनेगा? कौन बनने देगा? और क्यों बनने देगा? और हो क्या जाएगा हिन्दू राष्ट्र से?
मनुष्य है वही, जो मनुष्य के लिए जीए।

इस तरह का जिम्मेदार इन्सान बनना असंभव है। किन्तु बनना ही होगा।
नेता कौन? नेता तो बांटते रहेंगे। हम ही बनेंगे। हम स्वयं।
घर में रहिए रहना है तो हिन्दू-मुसलमान। बाहर तो बस, इन्सान।

आने वाला पल, जाने वाला है। बस, इसी पल में मनुष्य, इन्सान हो जाइए।
दादरी के दरिंदे कठोरतम दण्ड पाएंगे।
किन्तु, हम यदि हिन्दू-मुसलमान ही बने रहे - तो 
हमारे बच्चे व्यर्थ कठोरतम दण्ड पाएंगे।
किन्तु उठना होगा इसके लिए, इन्सान।
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