हमारी सूट-बूट-लूट की सरकार के हवा-हवाई वादे चाहे जो भी रहे हों लेकिन शिक्षा बजट में की गयी १३००० करोड़ की कमी के साथ-साथ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जो लीपा-पोती चालू हुई है वह इस दुनिया के सबसे युवा देश के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. उच्च शिक्षा के बुरे दिन तो तभी शुरू हो गए थे जब स्मृति मैडम की झोली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय पके आम की तरह डाल दिया गया था. सरकार बनते ही सबसे पहले शैक्षिक सुधारों के लिए बनी यशपाल रिपोर्ट को संसद ने खारिज़ कर दिया और यह भी नहीं बताया कि उसमें क्या कमी-बेशी, अच्छाई-बुराई थी. राज्यों के विश्वविद्यालयों को मिलने वाले अनुदान में भी कमी कर दी गयी है.
स्मृति मैडम इस पद के अयोग्य ही नहीं घमंडी और कुतर्की भी हैं यही कारण है कि डॉ. अनिल काकोदकर जैसे प्रख्यात वैज्ञानिक और अकादमीशियन ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. बाद में कैबिनेट के समझाने-बुझाने पर उन्होंने काकोदकर का इस्तीफ़ा नामंज़ूर कर दिया. वे अकादमीशियनों और उच्च शिक्षा क्षेत्र के बौद्धिक लोगों का सम्मान भी नहीं करतीं. तमाम कर्मचारियों ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्थानान्तरण करवा लिया या मैडम ने कर दिया. विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता और पाठ्यक्रम से भी बड़े पैमाने पर छेड़-छाड़ शुरू हो गयी है. ज़ाहिर है इस सरकार को शैक्षिक सुधारों से इतना ही मतलब है कि वह हिन्दू राष्ट्र की फैंटेसी को पाठ्यक्रम पर थोप दे और अकादमिक संस्थानों का भगवाकरण कर दे. बाक़ी न इनके पास कोई योजनाएँ हैं, न सुधार हैं. ऐसे देश में जहाँ दुनिया भर में सबसे अधिक युवा रहते हैं, युवाओं के लिए सरकार के पास भगवा रंग में रंगी फैंटेसी के सिवाय कुछ भी नहीं है. सालाना आने वाली हज़ार दो हज़ार केंद्र की नौकरियों पर टिड्डी दल की तरह जय श्री राम बोलकर कूद पड़ो. अब उनमें भी कटौती कर दी गयी है. बहरहाल अच्छे दिनों की माला जपते रहो रमज़ानी भाई ! रामलला जब आयेंगे तो नौकरी लेकर आयेंगे !
By: Arsh Santosh
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