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अलविदा दोस्त, इस देश में फिर कभी पैदा मत होना…

 
मुकुल और मैं अलीगढ में 2007 में हुए दंगे में साथ साथ ड्यूटी कर रहे थे. तब भी कई गोलियां चली थी लेकिन हम दोनों सुरक्षित रहे.ऑफिसर कॉलोनी में मुकुल और मेरा आवास एक साझा चारदीवारी से जुड़ा हुआ था. तब वो सीओ सिटी फर्स्ट थे और मैं सीओ अतरौली. रात को अक्सर हमदोनो एक साथ ही 2. 00 बजे भोर ड्यूटी से वापस आते, पहले ठहाके लगाते फिर सोने जाते.

मुकुल एक निहायत ही शरीफ, मृदुभाषी, संवेदनशील और भावुक इंसान थे. मुकुल ने अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य समय अपने मासूम बच्चों और पत्नी को नहीं बल्कि पुलिस और समाज को दिया है. मैं गवाह हूँ उनके हाड़तोड़ मेहनत और प्रतिबद्धता का. मुकुल शेरो- शायरी के भी शौक़ीन थे. आम आदमी तो प्यार में शायर बनता है लेकिन हिन्दू मुस्लिम दृष्टिकोण से साम्प्रदायिक शहरों में नियुक्ति से पुलिस वाले शायर बन जाते है. मुकुल दोनों प्रकार से बने हुए शायर थे.

मुकुल आज हमारे बीच नहीं है. पुलिस की नियति अपने ही लोगो द्वारा मारे जाने की है. पुलिस की मौत पर जश्न मनाने वालों खुश रहो. हम यूँही मुकुल बन कर मरते रहेंगे. मुकुल किसी आतंकवादी या डकैतों से लड़ता हुआ मारा जाता तो हमें गर्व और दुःख होता लेकिन आज शर्म और दुःख है.
विदा मुकुल, अब कभी मत मिलना। और आखिरी बात इस देश में फिर कभी पैदा मत होना।

गोरतलब रहें कि 2 जून को मथुरा के जवाहरबाग में अतिक्रमण हटाने गई पुलिस टीम पर हुई फायरिंग में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी शहिद हो गयें थे. एसपी मुकुल द्विवेदी को लाठियों से बुरी तरह पीटा था जिसके कारण उनकी मौत हो गई थी.
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