मैंने ‘फंस गए रे आबामा’ खत्म करने के समय ही ‘गुड्डू रंगीला’ की स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी थी। बात ढंग से आगे नहीं बढ़ रही थी तो मैंने उसे छोड़ दिया और ‘जॉली एलएलबी’ पर काम शुरू कर दिया था। उस फिल्म को पूरी करने के दौरान ही मुझे ‘गुड्डू रंगीला’ का वैचारिक धरातल मिल गया। उसके बाद तो उसे पूरा करने में देर नहीं लगी। मैं स्क्रिप्ट जल्दी लिखता हूं। पत्रकारिता की मेरी अच्छी ट्रेनिंग रही है। समय पर स्टोरी हो जाती है। ‘ग़ुड्डू रंगीला’ के निर्माण में अमित साध के एक्सीडेंट की वजह से थोड़ी अड़चन आई,लेकिन फिल्म अब पूरी हो गई है। मुझे खुशी है कि मैं अपने काम से संतुष्ट हूं।
जरूरी है वैचारिक धरातल
मेरे लिए फिल्म का वैचारिक धरातल होना जरूरी है। आप मेरी फिल्मों में देखेंगे कि कोई न कोई विचार जरूर रहता है। मैं किसी घटना या समाचार से प्रेरित होता हूं। उसके बाद ही मेरे किरदार आते हैं। ‘गुड्डू रंगीला’ की शुरूआत के समय मेरे विचार स्पष्ट नहीं थे। यह तो तय था कि हरियाणा की पृष्ठभूमि रहेगी और उसमें खाप पंचायत की भी उल्लेख रहेगा। अटकने के बाद मैंने आधी-अधूरी स्क्रिप्ट छोड़ दी थी। ‘जॉली एलएलबी’ पूरी होने के बाद मैंने स्क्रिप्ट फिर से पढ़ी। मुझे ऐसा लगा कि नई घटना को इसके साथ जोड़ दें तो स्क्रिप्ट रोचक हो जाएगी। आप को याद होगा कि हरियाणा में मनोज-बबली का मामला बहुत मशहूर हुआ था। दोनों एक ही गोत्र के थे और शादी करना वाहते थे। खाप पंचायत ने उन पर रोक लगाने के साथ आदेश नहीं मानने पर बुरे परिणाम की चेतावनी दी थी। तब मामला सरकार और संसद तक पहुंचा था। सरकारी तंत्र से उनकी सुरक्षा की घोषणा भी की गई थी,लेकिन वे बच नहीं सके थे। उस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैंने वहीं से प्रेरणा ली। मेरी फिल्म में वह घटना नहीं है,लेकिन खाप पंचायत और उनके आदेशों का जिक्र है। संक्षेप में मेरी फिल्म में खाप भी है और आप(दर्शक) भी हैं।
आसपास मिलती हैं कहानिय़ां
मैंने हमेशा अपनी जिंदगी के अनुभवों से ही कहानियां ली हैं। मैं प्रोजेक्ट नहीं बना सकता,जिसमें स्टार हों और सारे मसाले हों। मैंने जो देख,सुना और जिया है,उन्हें ही पेश करता हूं। मुझे अपने आसपास की विसंगतियों और विरोधाभासों में कहानियां मिलती हैं। मेरे किरदार मामूली लोग होते हैं। वे निजी स्तर पर माहौल से जूझ रहे होते हें। वे हंसाने या रुलाने के नहीं गढ़े जाते। उनकी स्थितियां ऐसी होती हैं कि दर्शक हंसते और भावुक होते हैं। गुड्डू और रंगीला ऐसे ही दो किरदार हैं। वे एक बैंड चलाते हैं और स्थानीय मौकों पर गाने-वाने गाते हैं। रंगीता नाम का ही रंगीला है। वह गंभीर स्वभाव का है। गुड्डू मस्तीखोर और आशिकमिजाज है। वह सभी का खुश करना और अपना काम निकालना जानता है। संयोग से दोनों ऐसी स्थितियों में फंसते हैं कि उनकी मुसीबत बढ़ जाती है।
कलाकारी दिखेगी फिल्म में
मेरी सभी फिल्मों में कलाकारों के अभिनय की तारीफ होती है। इस बार भी दर्शक संतुष्ट होंगे। अरशद वारसी उम्दा कलाकार हैं। वे विरोधाभासी किरदारों को बहुत अच्छी तरह निभाते हैं। अमित साध ने जबरदस्त काम किया है। उन्हें देख कर आप दंग रह जाएंगे। रोनित राय का किरदार और अभिनय दोनों ही प्रभावशाली है। उन्हें दर्शक याद रखेंगे। मेरी फिल्मों में महिला करदारों के लिए अधिक स्पेस नहीं रहता था। इस बार ऐसी शिकायत नहीं होगी। अदिति राय हैदरी ‘गुड्डू रंगीला’ की प्रमुख किरदार होने के साथ सूत्रधार भी हैं।
फेसबुक पर माता का बुलावा
‘कल रात माता का मुझे ईमेल आया है,माता ने मुझ को फेसबुक पर बुलाया है’ गीत की प्रेरणा मुझे अपने बचपन से मिली। मेरी मां माता की भक्त हैं। घर में तब कैसेट बजा करते थे। नरेन्द्र चंचल जी के गाए माता के गीत सुबह से बजने लगते थे। तभी एक गीत सुना था,जिसमें माता जी का टेलीफोन आता है। मुझे लगा कि अगर तब माता के टेलीफोन की कल्पना की जा सकती है तो अभी फेसबुक और ईमेल के सहारे उनकी बात की जानी चाहिए। मेरे किरदार गुड्डू और रंगीला जिस तबके के हैं,वे ऐसे ही गीत गा सकते हैं। प्रोमो में इस गीत की पंक्तियों का लोगों ने काफी पसंद किया है।
रहा हूं जल्दबाजी में
भविष्य की फिल्मों के बारे में अभी ठोस ढंग से कुछ नहीं कह सकता। दो’तीन स्क्रिप्ट तैयार हैं। ‘जॉली एलएलबी’ के सीक्वल की बात है। पहले ऐसा कोई इरादा नहीं था। ‘गुड्डू रंगीला’ की शूटिंग के दरम्यान अरशद वारसी से मिलने आए प्रशंसकों में से अधिकांश ने कहा कि सीक्वल आना चाहिए। उसके बाद ही मैंने विचार किया और सीक्वल की प्लानिंग हो गई। कुछ लोगों को लगता है कि मैं लोकप्रिय सितारों के बगैर ही फिल्में बनाने में यकीन रखता हूं। अभी तक मैं जल्दबाजी में रहा हूं। ऐसी स्थिमि में सितारों के लिए इंतजार नहीं किया जा सकता। अभी सोच रहा हूं कि उन्हें स्क्रिप्ट सुना कर फायनल कर लूं। जब उनकी तारीख मिलेगी,तब मैं तैयार रहूंगा। अभी कुछ और फिल्में कर लूंगा। मैं जिन सितारों के साथ अभी तक काम करता रहा हूं,उनसे पूरा समर्थन मिलता है। वे मेरी स्क्रिप्ट के प्रति समर्पित रहते हैं। और मैं अपनी बात भी कह लेता हूं।
मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि मैं कमर्शियल ढांचे में सुकून महसूस करता हूं। मेरी प्रिय फिल्मों में शोले और दो बीधा जमीन जैसी फिल्में हैं। मैं कमर्शियल मसाले या फार्मूले में यकीन नहीं रखता,लेकिन मानता हूं कि हिंदी कमर्शियल सिनेमा की कुछ विशेषताएं हैं। उन्होंने दशकों से देश के दर्शकों का मनोरंजन किया है। ग्लोबल होने के चक्कर में हम उन्हें खारिज न करें।
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