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अजमेर शरीफ: दूर-दूर से आते हैं लोग, हिंदू परिवार करता है उर्स की शुरुआत



उर्स के समय दरगाह के बाहर का नजारा।




अजमेर। राजस्थान के अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा मोईनुद्दी न चिश्ती रहमतुल्ला अलैह की मजार पर 803वें सालाना उर्स की शुरूआत हो चुकी है। इस दरगाह के बारे में आपको बताएगा हर वह बात जो जानना चाहते हैं आप। इसी कड़ी में आज पढिए- दरगाह के इतिहास के बारे में।

अजमेर की दरगाह का भारत में ही नहीं विदेशों में भी बड़ा महत्व है। कहा जाता है कि ख्वाजा मोईनुद्‍दीन चिश्ती के दरबार में लोग चींटी की तरह खिंचे चले आते हैं। ऐसा नहीं है कि यहां आने वाले सिर्फ मुस्लिम ही हो। यहां आने वालों की संख्या मुस्लिम से ज्यादा दूसरे धर्म को मानने वाले लोगों की है। अजमेर के गरीब नवाज का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि लोग यहां खिंचे चले आते हैं। यहां का मुख्य पर्व उर्स है। ये इस्लाम कैलेंडर के रज़ब माह की पहली से छठवीं तारीख तक मनाया जाता है। उर्स की शुरुआत बाबा की मजार पर हिन्दू परिवार द्वारा चादर चढ़ाने के बाद ही होती है।

इस्लाम के साथ सूफी मत की शुरूआत

हमारे देश में जब इस्लाम धर्म को मानने वाले आए उन्हीं के साथ सूफी मत को मानने वाले भी आए। इसी के साथ दोनों की शुरुआत भारत मैं हुई। सूफी संत एक ईश्वरवाद पर विश्वास रखते थे। इन्हीं में से एक थे हजरत ख्वाजा मोईनुद्‍दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह। बताया जाता है कि ख्वाजा साहब का जन्म ईरान में हुआ था। फिर ख्वाजा हिन्दुस्तान आ गए। एक बार बादशाह अकबर ने इनकी दरगाह पर पुत्र प्राप्ति के लिए मन्नत मांगी थी। ख्वाजा साहब की दुआ से बादशाह अकबर को बेटा हुआ। ख्वाजाजी का शुक्रिया अदा करने अकबर बादशाह ने आमेर से अजमेर शरीफ तक पैदल आकर शीश नवाया था।

वास्तुकला की बेजोड़ मिसाल

तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला बेजोड़ मिसाल कही जा सकती है। यहां ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला दोनों ही देखने को मिलती है। दरगाह के प्रवेश द्वार कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहांगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अंदर नक्काशी दार चांदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहां कव्वालियां होती हैं।

उर्स के समय दरगाह के अंदर का नजारा।
मन्नत मांगने के लिए बांधते हैं धागा

यहां ऐसी मान्यता है कि धागा बांधने से यहां सच्चे मन से मांगी हुई हर मुराद पूरी होती है। मुराद पूरी होने पर खोलने का नहीं। उर्स इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब माह में पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है। छठी तारीख को ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि मनाई जाती है। उर्स के दिनों में महफिलखाने में देश भर से आए कव्वाल अपनी कव्वालियां गाते हैं। मान्यता है कि यदि जायरीन यहां आने से पहले हजरत निज़ामुद्दीन औलिया, दिल्ली के दरबार में हाजरी लगाता है तो उसकी मुराद यहां सौ फीसदी पूरी होती है। उर्स के मौके पर लाखों की संख्या में लोग चादर चढ़ाने अजमेर आते हैं।

दरगाह का मुख्य दरवाजा।
महक उठता है पूरा बाजार

उर्स के समय बाजारों की सजावट देखने लायक होती है। दरगाह और उसके आसपास फूल, इत्र और अगरबत्ती आदि की सुगंध महक उठती है। वास्तव में दरगाह शरीफ एक ऐसी पाक जगह है, जहां मनुष्य को खुद को जानने और समझने की शक्ति मिलती है तथा कुछ समय के लिए वह अपने सारे दुखों को भूल जाता है। मोईनुद्दीन चिश्ती ने कभी भी अपने उपदेश किसी किताब में नहीं लिखे न ही उनके किसी शिष्य ने उन शिक्षाओं को संकलित किया। चिश्ती ने हमेशा राजशाही, लोभ, मोह का विरोध किया। उन्होंने सभी को मानव सेवा का पाठ पढाया। अकबर के शासन के समय अजमेर में चिश्ती की स्थापना हुई व ख्याति फैली।
दरगाह पर जियारत करने पहुंचा एक परिवार।





















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